Monday, July 15, 2013

जाति ही पूछो नेता की

   हमारे भारत देश मे जाति का विरोध और जाति का उपयोग मनु के समय से ही प्रचलित है । सब पार्टियां जाति विरोधी और धर्म की राजनीति की विरोधी है लेकिन उसका उपयोग हर अवसर पर करती हैं । जाति प्रथा का सबसे बड़ा विरोध लोहिया जी ने किया था लेकिन आज भी सब लोग उन्हे उनके नाम से नहीं जाति सूचक शब्द से ही पहचानते है । जाति पति तोड़क गुट के मुखर नेता यों मे केवल चंद्रशेखर ही ऐसे थे जो केवल अपने नाम से जाने जाते थे राजनारायन भी उन्ही के साथी थे । लेकिन जैसे वे दोनों सत्ता मे आए दोनों की जाति की जिम्मेदारियाँ और संबंध उजागर होने लगे कोई भूमिहार हो गया तो कोई सिंह । लोहिया जी के सबसे बड़े अनुयायी मुलायम सिंह यादव का तो एक जाति से काम नहीं चलता है वे तो सिंह भी हैं और यादव भी । फिलहाल अखिलेश ने सिंह से पीछा छुड़ा लिया है । कांग्रेस हो बीजेपी या कमुयनिस्ट  समाजवादी विरले नेता  ही हैं जो अपने जाति के पुच्छले के बिना सामाजिक जीवन मे दिखाई पड़ता है । खाली जाति सूचक शब्द ही नहीं उनकी विरासत के अहंकार भी जागृत होता हैं राजे रजवाड़े  होने का जमींदार होने का अब तो चित्रांस सभा कछवाहा समाज बनिया समाज क्षत्रिय समाज अब तो कोरी समाज धानुकन जाने कितनी जतियों की  भागीदारी का आह्वान होने लगा । आखिर दो विपरीत धारायों मे चलती राजनीति से समाज क्या उम्मीद रख सकते हैं । सबसे ज्यादा हास्यासपद लगता है जब कम्युनिस्ट पार्टी के नेता बसु करात डांगेसे ज्यादा जाने जाते हैं किसी भी नेता ने कभी यह जानने की जरूरत नहीं समझी की यह जाति नाम क्या और क्यों हैं ?अतुल अंजान जैसे और नाम सामने क्यों नहीं आते । दुख की बात हैं जो फिल्मी दुनिया के अधिकतर कलाकार अपने नाम और काम से जाने जाते थे दिलीप कुमार राज कुमार मीना कुमारी देवानन्द सुलोचना जैसे नाम अपनी पहचान केवल नाम काम से रखते थे लेकिन आज कपूर खान चोपड़ा ठाकुर सेन शर्मा आदि के बिना नहीं दिखाई पद रहें हैं ऐसे मे खापपंचायत जैसी आदिम जाहिल संस्थाए ज्यादा ताकतवर होती जाएंगी । लेकिन किसी भी राजनीतिक दल या सामाजिक संस्था की चिंता मे यह सोच नहीं है ।केवल सेमिनार और टीवी पर बहस के लिए ही है ।  कांग्रेस के एक हालिया बाहर हुए नेता तो चौधरी  सिंह चतुर्वेदी तीन उपनाम रखते थे । 

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